अंडमान द्वीपसमूह पर १० मार्च १८५८ को दंड बस्ती सफलतापूर्वक स्थापित की गई । इससे पहले १७८६ में इसे स्थापित करने का एक असफल प्रयास हो चुका था । दो सौ कैदियों से लदा पहला जहाज़ चेथम द्वीप पर पहुँचा। परंतु, पीने के पानी के अभाव के कारण बस्ती को वाइपर द्वीप पर स्थानांतरित करना पड़ा । इसे कुछ वर्षों के भीतर रॉस द्वीप और पोर्ट ब्लेयर में स्थानांतरित कर दिया गया ।
वाइपर और रॉस द्वीपों पर दंड बस्ती एक खुले जेल के रूप में कार्य करती थी । एक हज़ार अपराधियों को चालीस झोपड़ियों में रखा जाता था जो द्वीप के मध्य में एक उत्तर-दक्षिण गलियारे के रूप में फैली प्रमुख सड़क पर स्थित थीं। प्रत्येक झोपड़ी साठ फ़ीट लंबी और दस फ़ीट चौड़ी थी और उन्हें एक दूसरे से दस फ़ीट की दूरी पर बनाया जाता था। नीचे की मंज़िल का उपयोग रसोई और उपकरण रखने के लिए किया जाता था जबकि ऊपरी मंज़िल का उपयोग सोने के लिए किया जाता था। यह अपराधियों को घातक मलेरिया के हमलों से बचाने के लिए किया गया था। परंतु, लगातार बारिश के कारण उनके कपड़े और बिस्तर गीले रहते थे जिससे उन्हें अपनी झोपड़ियों के भीतर मच्छरों से थोड़ी ही सुरक्षा मिल पाती थी । उनसे प्रत्येक दिन नौ से दस घंटे जंगल काटने, इमारतों और झोपड़ियों का निर्माण करने के कार्य करवाए जाते थे । ज़हरीले पौधों से होने वाले घाव और बेड़ियों से होने वाले घर्षण के परिणामस्वरूप फोड़े हो जाते थे, जिनका उपचार न होने पर वे संक्रमित हो जाते थे, जिससे बहुत दर्द होता था और अक्सर मौत हो जाती थी।
इस नज़रबंदी से फरार होने का प्रयास बस्ती की स्थापना के छत्तीस दिनों के भीतर ही दर्ज हो गया था। उस सदी में इस प्रकार के अनेक प्रयास हुए लेकिन बहुत कम कैदी महाद्वीप तक जीवित पहुँचने मे सफल हुए। अक्टूबर १८५८ के बाद, तेरह हज़ार तीस अपराधी द्वीपसमूह पर पहुँचे । पहले साल के भीतर, १९१ लोगों की अस्पताल में ही मृत्यु हो गई, जबकि १७० बस्ती से भाग गए और लापता हो गए । यह मान लिया गया कि वे आदिवासियों द्वारा मारे गए या समुद्र में डूब गए ।
दंड बस्ती से जुड़ी जीवन की कठिनाई पर, रेव. एच कॉर्बिन कहते हैं, "मूल निवासी के नई बस्ती में आने के बाद उसे इतना परास्त कर दिया जाता था कि वह स्वयं अपनी संपूर्ण पहचान खो देता था।” आशा की एक किरण इस अफ़वाह पर टिकी थी कि एक मार्ग द्वीपों को भारत के मुख्य भूमि से जोड़ता है। कई अपराधी, घर वापस जाने का रास्ता खोजने के दृढ़ संकल्प के साथ, पैदल ही बस्ती से भाग गए। परंतु, इन लोगों के घातक अंत हुआ।
दंड बस्ती में, जो अब पोर्ट ब्लेयर थी, १८६२ तक २५०० अपराधी थे। ब्रिटिश अधिकारी इन द्वीपों की अब तक २४ वर्षों से निर्वनीकरण करते आ रहे थे । अंग्रेज़ों की इच्छा थी कि वे अपराधियों के श्रम का उपयोग कर द्वीपों के घने जंगलों को साफ़ करवाकर खेती योग्य भूमि और उसके अपेक्षित समृद्ध खनिज संसाधनों तक पहुँच जाएँ, जो इस द्वीप को एक समृद्ध प्रांत में बदलने की दिशा में प्रारंभिक कदम होगा । पोर्ट ब्लेयर के अधीक्षक, टाइटलर ने भारत सरकार को एक पत्र लिखा जिसमें सूचित किया कि अंडमान के भीतर अपराधियों की उच्च मृत्यु दर और अपराधियों की कमी की क्षतिपूर्ति के लिए नज़रबंदी में ७९००% की वृद्धि की आवश्यकता होगी।
तीस साल के भीतर ही, ब्रिटिश पोर्ट ब्लेयर पर अपने संसाधनों को, जेरेमी बेंथम के पैनोप्टिकॉन की अवधारणा पर आधारित एक बड़ी पहिया नुमा संरचना, 'सेल्युलर' जेल के निर्माण पर केंद्रित करना शुरू कर दिया जो एकाकीपन, मौन और चौकसी पर आधारित एक प्रणाली थी ।
सेल्युलर जेल उन लोगों के लिए बनाया गया था “जिनका भारत से निष्कासन जनहित में माना जाता था।” पुरुष, महिलाएँ और बच्चे, जिन्हें आजीवन कारावास या सात साल से अधिक की सज़ा सुनाई गई थी, उन्हें द्वीपों पर भेजा जा सकता था।
हालाँकि सुधारवादी विद्यालय अधिनियम (१८९७) ने पंद्रह साल से कम उम्र के कैदियों के अंडमान में निर्वासन पर रोक लगा दी थी, परंतु वे दोषी जिन्हें मृत्युदंड या ‘आजीवन निर्वासन' का दंड दिया गया था, वे अपवाद माने जाते थे । सेल्युलर जेल की खौफ़नाक जीवन परिस्थितियों और कठोर परिश्रम के बावजूद, पंद्रह से सत्रह वर्ष की आयु के पाँच लड़कों को १९३३ में वहाँ नज़रबंद किया गया। सबसे कम उम्र का अपराधी पंद्रह वर्षीय हरिपद भट्टाचार्य था। अंग्रेज़ों ने लड़के को दोषी घोषित करने के फैसले का प्रतिवाद यह कह कर किया कि वह चटगांव में एक पुलिस अधिकारी की हत्या के अपराध में मृत्युदंड का अधिकारी था । उन्होंने कहा कि यह केवल उसकी उम्र थी जिस कारण से न्यायाधीश ने उसे निर्वासन का दंड दिया था ।
जेल अधिनियम (१८९४) में दोषियों के लिए उनकी रहने की परिस्थितियों के विषय में आदेश थे । इसके अनुसार, सेल्युलर जेल में अलग-अलग कारावास अपवाद था, मानक नहीं। परंतु, प्रत्येक दोषी को एक अलग कोठरी आवंटित की गई थी जो उसके सामने की कोठरी के पीछे की ओर खुलती थी । प्रकाश या वायु-संचार का दूसरा एकमात्र स्रोत कोठरी की पिछली दीवार में एक छोटी सी खिड़की थी। दिन के अपने श्रम कार्यभार के बाद कैदियों को एक दूसरे के साथ दबे स्वर में बात करने की अनुमति दी गई थी। जो सेल्युलर जेल में कैद होने के पहले से एक-दूसरे को जानते थे उन कैदियों को एक दूसरे से अलग रखने पर विशेष ध्यान रखा जाता था । बाहरी दुनिया के साथ किसी भी प्रकार के संपर्क पर बंधन लगाए जाने से एकाकीपन का बोध केवल बढ़ता ही था । केवल वह कैदी जिन्हें "उचित रूप से शिष्ट" माना जाता था, को पत्र लिखने या प्राप्त करने और महाद्वीप से आए हुए आगंतुकों से मिलने की अनुमति दी जाती थी । सभी बातचीत पर बारीकी से नज़र रखी जाती थी और राजनीतिक प्रासंगिकता के किसी भी मामले पर चर्चा नहीं होने दी जाती थी।
प्रत्येक कोठरी में एक लकड़ी की चारपाई, एक कुर्सी, एक छोटी मेज़, एक शेल्फ, एक मिट्टी का पानी का मटका और एक चपटे तले वाला मूत्र पात्र होना आवश्यक था। प्रत्येक कैदी को एक सुरक्षित उस्तरा, कोलगेट टूथपेस्ट और लाइफबॉय साबुन मिलता था । ये वे विशेषाधिकार थे जो अधिकारियों द्वारा दंड के रूप में वापस लिए जा सकते थे। हर पंद्रह दिनों में पुरूष कैदियों के (उनकी रिहाई के एक महीने पहले को छोड़कर) बाल बारीकी से काटे जाते थे और उन्हें कुर्ता या शर्ट के साथ दोसुती धोती या पतलून पहनाई जाती थी । अपने आप को अपराधियों के जेलर से अलग दिखाने के लिए सभी कैदियों को अपने दाहिने कंधे पर दो इंच चौकोर बिल्ला पहनना पड़ता था। यह बिल्ला जेलर के बिल्ला के समान था जिसे वह अपनी दाहिनी बाँह पर पहनता था । सभी दोषी गले में एक लकड़ी का बना हुआ पहचान पत्र पहनते थे। इसमें उनके जन्मस्थान और दंडादेश जैसे विवरण अंकित होते थे।
प्रतिदिन भोर में कोठरियाँ खोली जाती थीं, तीस मिनट की शौच परेड के बाद मुख्य जेलर द्वारा तुरंत जाँच की जाती थी। कारागृह में प्रत्येक छः कैदियों के बीच एक स्नानघर था, प्रत्येक कैदी को सिर्फ पाँच मिनट मिलते थे, कभी भी इससे अधिक समय लगाने पर साथी कैदी के समय से उतना समय काट लिया जाता था ।
नाश्ते में चाय के साथ मक्खन वाली डबल रोटी, दोपहर के भोजन में चावल, दाल, सब्ज़ियाँ और साथ में इमली या निंबू, गुड़ और दही शामिल होते थे। प्रोटीन की आवश्यकताएँ, माँस, मछली, अंडे या दूध से संतुलित मात्रा में पूरी की जाती थी।
जेल में एक पुस्तकालय था। अपराधियों को एक समय में पाँच पुस्तकें लेने की अनुमति थी और द इलस्ट्रेटेड टाइम्स ऑफ़ इंडिया, संजीबनी और बंगबासी जैसे अख़बार प्राप्त कर सकते थे। १८९४ के नियमों के तहत यह भी कहा गया था कि कैदियों के दुर्व्यवहार या किसी भी साथी कैदी पर हमले की कोशिश को विफल करने के मामलों को छोड़कर, अन्य किसी भी बात पर बेड़ियाँ नहीं बाँधी जाएंगी । कानून ने यह भी कहा कि कोड़े, अंतिम उपाय के रूप में और द्वीप के मुख्य आयुक्त के अनुमोदन पर ही लगाए जाने चाहिए।
परंतु, ये नियम केवल कागज़ पर ही बने रह गए । तीन कैदियों, महावीर सिंह, मोहन किशोर नामदास और मोहित मोइत्रा ने १९३३ में जेल की अत्यधिक खराब परिस्थितियों को संबोधित करने के लिए जेल के भीतर भूख हड़ताल की। उनकी मांगों में पुस्तकें, साबुन, खाद्य भोजन और अपने साथी कैदियों के साथ संवाद करने के अधिकार शामिल थे । हालाँकि इन ३ नेताओं की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई, परंतु मांगों के आंशिक रूप से पूरा होने तक, पैंतालीस दिनों तक हड़ताल जारी रही।
सेल्युलर जेल के भीतर की परिस्थितियों के प्रति बढ़ते विरोध के कारण सरकार पर जेल को बंद करनेकी प्रक्रिया शुरू करने के लिए दबाव डाला गया । १९२१ तक स्थानीय सरकारों को जहाँ तक संभव हो, अंडमान में निर्वासन रोकने की दिशा में कदम उठाने के लिए कहा गया । तीन प्रांतों को छोड़कर सभी ने इसका अनुपालन किया। परंतु, पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और मद्रास, ख़िलाफ़त आंदोलन और माप्पिला विद्रोह के अप्रत्यक्ष परिणामों से उबर रहे थे। जिन ‘आतंकवादी’ कैदियों को आंदोलन में भाग लेने के लिए दंड दिए गए थे उन्हें द्वीपों पर भेजा जाता रहा । १९२१ में, चौदह हज़ार माप्पिला विद्रोहियों को पोर्ट ब्लेयर ले जाया गया। जेल के अंदर पहले से ही मौजूद बंदियों को उनकी शेष सज़ा काटने के लिए, महाद्वीप के जेलों में जगह के अभाव के कारण वहीं रखा गया । १९३१ तक सभी "उपद्रवी आवर्ती अपराधी या हिंसक अपराधियों" को वापस स्वदेश भेज दिया गया। पंजाब ने १९३२ में ही जाकर निर्वासन बंद किया ।
१९३० के दशक तक, भारत सरकार की नीति अंडमान को भविष्य में एक दंड बस्ती से एक स्वावलंबी समुदाय में परिवर्तन की बन गई। भारतीय जेल समिति की रिपोर्ट द्वारा द्वीपों को 'स्व-समर्थक' भूतपूर्व दोषियों और स्वयंसेवकों के लिए खोला गया। ऐसा तय किया गया कि सेल्युलर जेल के कैदी जो द्वीपो पर बसने का विकल्प चुनेंगे वे अपनी सज़ा में एक तिहाई की कमी के लिए अर्हता प्राप्त कर सकेंगे, जबकि भारत महाद्वीप के जेलों के कैदी अगर अठारह से पैंतीस वर्ष के बीच की आयु के होंगे और अपनी रिहाई की तारीख पर पचपन वर्ष से कम होंगे, तो अर्हता प्राप्त करेंगे।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, अंडमान द्वीप समूह पर जापानी सेना ने कब्ज़ा कर लिया । उन्होंने इसका प्रशासन सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज को सौंप दिया । इस क़ब्ज़े के दौरान, जापानियों ने सेल्युलर जेल खाली कर दिया और अपनी सेना का सेनावास बनाने के लिए जेल के तीन खंडों को नष्ट कर दिया ।
संरचनात्मक क्षति के कारण दो और खंडों को भी गिरा दिया गया। धुरी राष्ट्रों की हार के कारण इन द्वीपों को अंग्रेज़ों को लौटा दिया गया । १९४७ में, भारत सरकार ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर स्थायी रूप से नियंत्रण ग्रहण कर लिया।
३० दिसंबर २०१८ को, प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने रॉस द्वीप का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वीप, नील द्वीप का शहीद द्वीप और हैवलॉक द्वीप का स्वराज द्वीप में परिवर्तित कर दिया ।