बहादुर शाह ज़फ़र या अबू ज़फ़र १८३७ में, ६२ वर्ष की आयु में मुग़ल सिंहासन पर बैठे। वे अपने पिता, सम्राट अकबर शाह द्वितीय के उत्तराधिकारी थे।
ज़फर (फ़ारसी में जिसका अर्थ ‘विजय’ होता है) एक कवि और कलाकार थे।
“दिवंगत महाराजा मिर्ज़ा अबु ज़फ़र के ज्येष्ठ पुत्र शांतिपूर्वक सामान्य अभिवादनों के तहत सिंहासन पर बैठने में सफल रहे। उनको प्रथागत हुज़ूर भेंट किए गए। इसके पश्चात एक पूर्ण दरबार आयोजित किया गया और राजमहल में सब शांतिपूर्ण है।” ज़फ़र बीस वर्षों तक सिंहासन पर आरूढ़ रह चुके थे, जब १८५७ में स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम हुआ।
ज़फ़र न केवल स्वयं एक उत्साही कवि थे, बल्कि कला, भाषा और कविता के संरक्षक भी थे और इसलिए हम उनके दरबार में योद्धाओं की तुलना में लेखकों और कवियों को अधिक पाते हैं। उनके दरबार में कला और कविता के क्षेत्र के दो सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति, इब्राहिम ज़ौक और मिर्ज़ा ग़ालिब मौजूद थे।
११ मई १८५७ की सुबह, दिल्ली एवं देश के अन्य हिस्से विद्रोह के कारण हिल उठे। जब क्रांतिकारी ज़फ़र के पास आए तो स्वाभाविक रूप से एक संवेदनशील व्यक्ति होने के नाते, वे उनका नेतृत्व करने के लिए अनिच्छुक थे। फिर भी, वे १८५७ के विद्रोह के नेता बनने के लिए सहमत हो गए। उत्तर भारत के अन्य शहरों में त्तीव्र गति से फैलने वाले विद्रोह का अँग्रेज़ी सैनिकों द्वारा दमन कर दिया गया।
दिल्ली में, सेनाध्यक्ष निकल्सन के नियंत्रण में पहले तीन सैन्यदल मुग़ल सम्राटों के एक पूर्व ग्रीष्मकालीन निवास, कुदसिया बाग़ के अंदर और उसके पीछे एकत्रित हुए। चौथे सैन्यदल का उद्देश्य केवल तब हमला करना था जब शहर की दीवारों के पश्चिम में काबुल गेट को अन्य सैन्य दलों द्वारा खोला जाए। पाँचवाँ सैन्यदल और घुड़सवार सेना को रिज़र्व रखा गया था।
तीसरे सैन्यदल ने उत्तरी दीवार के कश्मीरी गेट पर हमला किया। कई सैनिक घायल हुए और मारे गए। विस्फोट ने गेट के एक हिस्से को ध्वस्त कर दिया। इस बीच, अन्य सैन्यदलों पर हमला होने से पहले ही, चौथे सैन्यदल को काबुल गेट के बाहर एक विद्रोही बल का सामना करना पड़ा। इस मुठभेड़ में भारी जनहानि भी हुई, जिसमें निकल्सन की मृत्यु हो गई।
बाद में अँग्रेज़ कश्मीर बास्टियन की दीवारों के अंदर, सेंट जेम्स चर्च में चले गए। अंग्रेज़ों की जनहानि संख्या १,१७० थी। परंतु मुग़ल साम्राज्य के पतन के साथ, सेनाध्यक्ष शेम्बलेन ने अंग्रेज़ों द्वारा दिल्ली पर विजयी अभिग्रहण की घोषणा कर दी।
मई में दिल्ली में विद्रोह के प्रकोप का अंत, अंग्रेज़ों द्वारा मुग़ल शासन पर पूर्ण रूप से शिकंजा कसे जाने के साथ हुआ। १९ सितंबर १८५७ को लाल किले पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। शाही परिवार के अन्य सदस्यों के साथ, राजा पहले से ही हुमायूँ के मक़बरे में शरण लेने के लिए चले जा चुके थे।
सेनापति विलियम होडसन और उनके गुप्तचर, मौलवी रजब अली के प्रयासों से २१ सितंबर को बहादुर शाह ज़फर ने इस शर्त पर आत्मसमर्पण कर दिया कि उनकी और उनकी पत्नी, ज़ीनत महल की जिंदगियाँ बख़्श दी जाएँगी । उसी दिन, उन्हें होडसन द्वारा बंदी बना लिया गया ।
अंग्रेज़ों ने उन्हें एक यूरोपीय पहरेदार की देखरेख में ज़ीनत महल के घर (जो लाल कुआँ में था) में कैद कर दिया और यह स्पष्ट कर दिया कि वे अपने भूतपूर्व पदनाम के कारण किसी भी शाही बर्ताव के हक़दार नहीं होंगे, परंतु उनकी तात्कालिक कैदियों वाली स्थिति के अनुसार उनका संरक्षण किया जाएगा ।
अगले ही दिन, होडसन और उसकी घुड़सवार सेना ने हुमायूँ के मक़बरे को फिर से घेर लिया और राजा के दो पुत्रों, मिर्ज़ा मुग़ल और मिर्ज़ा ख़िज़्र सुल्तान, और उनके पोते मिर्ज़ा अबू बक्र को पकड़ लिया, “जिन सभी ने विद्रोह में प्रमुख भूमिकाएँ निभाई थीं”। उनको क़ैदी बना लिया गया और दिल्ली गेट के पास एक स्थान (जिसे आज 'खूनी दरवाज़ा' के नाम से जाना जाता है) पर होडसन द्वारा उन्हें निर्दयतापूर्वक गोली मार दी गई । आसूचना विभाग के प्रभारी, डब्ल्यू. मुइर ने लिखा कि "उनके शव अब कोतवाली में पड़े हुए हैं , जहाँ हमारे कई देशवासियों की हत्या कर दी गयी थी और उनके शव अनावृत पड़े रहे थे"।
इस के साथ साथ, अँग्रेज़ दिल्ली में निर्मम हिंसात्मक दमन भी कर रहे थे। १४ सितंबर १८५७ को अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर हमला किया और २० तक उसपर क़ब्ज़ा कर लिया।
ज़फर ने निम्नलिखित पदों में इस घटना के बारे में शोक प्रकट किया:
‘ऐ वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से
दिल्ली ‘ज़फर’ के हाथ से पल में निकल गई ।’
यह ऐसा था मानों कवियों के शहर से उसके दोहे छीन लिए गए हो, जैसे उसकी कलम में कोई स्याही न बची हो। "चांदनी चौक, और वास्तव में इस शहर की हर गली, विनाश एवं निर्जनता का परम शोकाकुल दृश्य प्रस्तुत करती है।"
सैन्य सचिव ने पंजाब के मुख्य आयुक्त जॉन लॉरेंस को एक पत्र लिखा, जिसमे कहा कि, "दिल्ली में अब एक भी विद्रोही का नामोनिशां नहीं है।"
वरिष्ठ अँग्रेज़ अधिकारी बहादुर शाह ज़फ़र और मुग़ल शाही परिवार के अन्य सदस्यों के ऊपर मुक़दमा चलाने पर विचार कर रहे थे। यह वाँछित था कि " विद्रोह संबंधित, जितनी संभव हो, उतनी जानकारी राजा से निकलवाई जाए।"
पहले, सेनाध्यक्ष विल्सन ने राजा को लाहौर के गोबिंदगढ़ में भेजने का प्रस्ताव रखा। उनका मानना था कि वहाँ राजा को कोई भी सहानुभूति प्राप्त नहीं होगी और वे विद्रोह के पुनरुत्थान के केंद्र नहीं बनेंगे । वे यह भी चाहते थे कि राजा के जाने से पहले उन पर मुक़दमा चलाया जाए क्योंकि उसका मानना था कि विद्रोह में राजा की भागीदारी को साबित करने के लिए पर्याप्त मात्रा में सबूत थे।
इसी दौरान ज़फ़र के बेटे मिर्ज़ा क़्वैश और मिर्ज़ा अब्दुल्ला दिल्ली से भागने में सफल रहे, जिससे लाहौर के मुख्य आयुक्त, जॉन लॉरेंस को बहुत निराशा हुई । उन्होंने कहा कि यदि ऐसी लापरवाही जारी रही तो इससे सामान्य आक्रोश पैदा हो सकता है। इसलिए उन्होंने शाही परिवार के अधिक से अधिक सदस्यों पर बिना किसी विलंब के मुक़दमा चलाए जाने की घोषणा की।
अँग्रेज़ बहादुर शाह ज़फ़र ( जिन्हें वे 'एक्स किंग' कहते थे) के बारे में बहुत आशंकित थे और उनका मानना था कि राजा या उनके परिवार के किसी भी सदस्य को कोई सम्मान नहीं मिलना चाहिए और जल्द से जल्द उन सभी पर विद्रोह में सम्मिलित होने के कारण मुक़दमा चलाया जाना चाहिए और उन्हें दंडित किया जाना चाहिए।
अक्टूबर १८५७ में यह निर्णय लिया गया कि राजा को सशक्त अनुरक्षकों के साथ इलाहाबाद भेजा जाएगा और १८५४ के अधिनियम १४ के तहत उन पर मुक़दमा चलाया जाएगा। अंग्रेज़ों द्वारा दो विशेष आयुक्त और एक अभियोक्ता नियुक्त किए गए। यदि राजा को दोषी ठहराया गया तो परिषद सहित गवर्नर जनरल को बिना किसी अन्य निर्देश दिए ही निर्णय पारित कर दिया जाएगा । ज़फर को अपना पक्ष रखने के लिये एक सप्ताह का समय दिया गया।
दिसंबर १८५७ में लाहौर के मुख्य आयुक्त, जॉन लॉरेंस ने लिखा कि राजा पर मुक़दमा चलाने के लिए उनके विरुद्ध विशिष्ट आरोप लगाना व्यावहारिक नहीं था। इसकी अपेक्षाकृत, उनके विरुद्ध सारे सबूतों को आयोग के समक्ष पेश किया जाना चाहिए। “यह सब केवल मात्र अभिलेख के लिए था; उन पर उनके जीवन के लिए मुक़दमा नहीं चलाया जा रहा है।”
लाल किले में २७ जनवरी १८५८ को बहादुर शाह ज़फ़र पर विद्रोह, राजद्रोह और हत्या के आरोपों पर मुक़दमा आरंभ हुआ। यह लगभग दो महीनों तक चला। ज़फ़र को दोषी ठहराया गया और उन्हें परिषद सहित गवर्नर जनरल द्वारा तय किए गए स्थान पर, निर्वासित किए जाने का दंड दिया गया ।
इस भय से कि भविष्य में ज़फर के वंशज ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दे सकते थे, अंग्रेज़ों ने शाही परिवार को किसी सुदूर स्थान पर निर्वासित करने और उन पर निगरानी रखने का निर्णय लिया।
उन्होंने यह प्रस्ताव भी रखा कि, "उम्र का लिहाज़ किये बिना, संपूर्ण वंश, पूरी तरह निर्वासित किया जाना चाहिए , चाहे वह दोषी हो या निर्दोष, ताकि विद्रोहियों के प्रतिनिधि के रूप में भारत में मुसलमान वंश का एक भी व्यक्ति न बच पाए और न ही उत्पन्न हो पाए।"
शाही परिवार को पहले इलाहाबाद और अंततः कलकत्ता में कैदियों के रूप में भेजा गया। ज़फ़र के साथ उनकी पत्नी ज़ीनत महल और उनके दो बेटे, मिर्ज़ा जवान बख़्त और मिर्ज़ा शाह अब्बास थे। नगर प्रशासन दिल्ली के नए प्रमुख सी. बी. सॉन्डर्स चाहते थे कि शाही परिवार को मुक्त कराने की किसी भी संभावना को रोकने के लिए, उनकी रवानगी को गुप्त रखा जाए।
शीघ्र ही यह निर्णय लिया गया कि उन्हें रंगून भेज दिया जाएगा जहाँ उन्हें कारावास में रखा जाएगा।
ज़फ़र को उनके परिवार सहित ४ दिसंबर १८५८ को जलयान 'मगोएरा' द्वारा डायमंड हार्बर से रंगून के लिए रवाना कर दिया गया और वे १० दिसंबर १८५८ को वहाँ पहुँच गए। एक ब्रिटिश रिपोर्ट के अनुसार, उनके रंगून आगमन पर वहाँ के अन्य भारतीय निवासियों के बीच कोई उत्साह नहीं था।
रंगून पहुँचने के बाद, ज़फ़र और उनके परिवार के सदस्यों को शुरुआत में तंबू में ठहराया गया। बाद में, उनके स्थायी रूप से रहने के लिए सागौन की इमारत बनाई गई, जहाँ उन्हें स्थानांतरित कर दिया गया। यह मुख्य गार्ड हाउस के पास स्थित थी जिससे कि यूरोपीय अधिकारी प्रत्येक दिन सुबह और शाम निगरानी के रूप में उनका निरीक्षण कर सके।
"बूढ़े और दुर्बल एक्स किंग," आमतौर पर ऊपरी मंज़िल के बरामदे में बैठे रहते थे । वह राहगीरों और जहाज़ों के समूह को ताकते रहते थे। यह अन्यथा नीरस जेल के जीवन से राहत थी। उनके लिए कलम, दवात और कागज़ वर्जित थे। जनता को उनसे मिलने की अनुमति नहीं थी और उनके नौकर भी केवल यूरोपीय अधिकारी द्वारा जारी दैनिक पास के माध्यम से ही उन तक पहुँच सकते थे।
बहादुर शाह ज़फ़र जब रंगून पहुँचे थे तब वे ८३ वर्ष की आयु के थे। वहाँ रहने के दौरान, उनका स्वास्थ्य और बिगड़ गया। उनके गले में लकवा हो गया और अंततः ७ नवंबर १८६२ को उनका निधन हो गया। उन्हें एक गुमनाम कब्र में दफ़न कर दिया गया।
जफ़र केवल आखिरी मुगल सम्राट ही नहीं थे । वे भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रधान मुखमंडल भी थे।