त्रावणकोर स्थानीय रूप से तिरुवनंतपुरम या त्रिवेंद्रम के नाम से जाना जाता है, जो वर्तमान में केरल की राजधानी है। पूर्वकाल में भगवान विष्णु के नाम पर अनंतशयनम के रूप में जाने जाने वाले, त्रिवेंद्रम शहर की उत्पत्ति से जुड़े कई उपाख्यान हैं ।
यह माना जाता है कि त्रिवेंद्रम की उत्पत्ति पद्मनाभस्वामी मंदिर की उत्पत्ति से जुड़ी हुई है। इससे जुड़ी कहानियों में से एक उस महिला की है जिसे अनंथ काड्ड (जिस स्थान पर आज मंदिर है, पहले एक जंगल था) में एक बच्चा मिला था। उसने रोते हुए बच्चे को खाना खिलाया और उसे एक पेड़ की छाँव के नीचे छोड़कर चली गई । जब वह वापस लौटी, तो उसने एक पाँच सिरों वाले नाग को बच्चे को सूरज की रोशनी से बचाते हुए पाया। इस शिशु को, जिसे विष्णु का अवतार माना गया, फिर नारियल के खोल में दूध और कांजी (चावल का झोल) चढ़ाया गया। जब तत्कालीन महाराजा को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने उस स्थान पर एक मंदिर बनवाने का आदेश दे दिया।
कहानी का एक और संस्करण संत विल्वमंगलम स्वामीयर से जुड़ा है, जिन्हें मालाबार के अधिकांश मंदिरों की प्रतिष्ठा का श्रेय दिया जाता है। वह शालग्राम (विष्णु के अवतार माने जाने वाले पवित्र पत्थर) की प्रतिदिन पूजा करते थे और महाविष्णु की ओर ध्यान लगाकर अपनी आँखें बंद कर लेते थे, ताकि एक दिन वह उनके दर्शन प्राप्त कर सकें । एक बच्चा उनकी प्रतिदिन प्रार्थना भंग करता था। गुस्से में एक दिन, उन्होंने अपनी आँखों के बंद होते हुए भी बच्चे को पकड़ लिया। इससे पहले कि संत अपनी आँखें खोल सकें, बच्चे ने महाविष्णु के आकार में अपना असली रूप प्रकट किया और घोषणा की कि वह केवल अनंथ काड्ड (जंगल) में ही प्रकट होंगे। स्वामीयर जंगल की संभावित दिशा में भागने लगे क्योंकि उन्होंने अनंथ काड्ड के बारे में कभी नहीं सुना था । वे अक्सर सुनाई देने वाले एक बच्चे की कमर के आभूषण की आवाज़ का पीछा करने लगे। आखिरकार, वह एक जगह पहुँचे जहाँ उन्होंने एक बच्चे का रोना सुना । उन्होंने एक माँ को उस बच्चे को धमकाते हुए देखा कि अगर वह रोता रहा तो वह उसे अनंथ काड्ड में फेंक देगी। संत ने महिला को काड्ड की ओर निर्देशित करने के लिए कहा। वहाँ, वह उस क्षेत्र की खोजबीन करते रहे जब तक कि वह एक ऐसी जगह नहीं पहुँच गए जहाँ एक बहुत बड़ा महुआ का पेड़ था। अचानक, वह विशाल पेड़ गिर पड़ा । स्वामीयर ने विष्णु को आदिशेष पर लेटे देखा, जो तिरुवल्लम से तिरुअप्पापुर तक फैले हुए थे। यह देखते ही संत ने देवता से प्रार्थना की कि वे अपने आप को सिकोड़ लें ताकि वे चढ़ावा चढ़ा सकें और चारों ओर परिक्रमा (प्रदक्षिणा) कर सकें। देवता ने उनकी प्रार्थना सुन ली । यह माना जाता है कि पद्मनाभस्वामी मंदिर के अंदर जो देवता की प्रतिमा है वह उसी गिरे हुए पेड़ से बनाई गई है। त्रावणकोर के तत्कालीन महाराजा ने आदेश दिया कि इस प्रतिमा पर एक मंदिर का निर्माण किया जाए। इस प्रकार तिरुवनंतपुरम के अत्यंत प्रसिद्ध श्री पद्मनाभस्वामी क्षेत्र की उत्पत्ति हुई ।
श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर की अद्वितीय बात यह है कि यह केरल की एकमात्र प्रमुख मंदिर संरचना है जो द्रविड़ शैली की वास्तुकला और केरल की वास्तुकला की स्वदेशी विशेषताओं को सम्मिलित करती है। यह दक्षिण भारत के प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ स्थानों में से एक है और उन कुछ मंदिरों में से एक है जहाँ विष्णु आदिशेष पर लेटे हुए दर्शाए गए हैं और सृष्टिरचयिता ब्रह्मा भगवान विष्णु की नाभि से निकलने वाले कमल पर विराजमान हैं । गोपुरम या इस मंदिर का प्रवेश द्वार द्रविड़ शैली के मंदिरों के समान है, जो अधिकतर तमिल नाड्ड में पाए जाते हैं। केरल के दूसरे मंदिरों में इतने अलंकृत गोपुरम नहीं हैं।
श्री पद्मनाभस्वामी को त्रावणकोर के शाही परिवार का प्रमुख देवता माना जाता है। वे प्रभु के सबसे बड़े भक्त भी थे। इस बात की उत्पत्ति महाराजा मार्तंड वर्मा के राज्यकाल से जुड़ी है, जिन्होंने एक ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया जिससे शाही परिवार के सदस्यों का जीवन बदल गया ।
मार्तंड वर्मा, जो सन् १७२९ में शाही सिंहासन के उत्तराधिकारी बने, इस क्षेत्र के सबसे महान शासकों में से एक माने जाते हैं। आधुनिक त्रावणकोर के निर्माता के रूप में भी जाने जाने वाले, मार्तंड वर्मा ने किलेबंदी को मज़बूत किया, एक फ्लेमिश अधिकारी द्वारा प्रशिक्षित सैनिकों के एक अनुशासित दल को बनाए रखा, निकटवर्ती क्षेत्रों को अपने राज्य में सम्मिलित किया और सबसे महत्वपूर्ण रूप से पद्मभस्वामी मंदिर के रखरखाव में विशेष रुचि ली । उनके शासनकाल के दौरान कुछ संरचनाओं को मौजूदा संरचना में जोड़ा गया । उन्होंने पद्मनाभस्वामी की मूर्ति का पुनःनिर्माण भी किया, जिसमें उन्होंने १२, 000 शालग्राम जड़वाए ।
दिसंबर सन् १७४९ में, मार्तंड वर्मा ने अपना राज्य श्री पद्मनाभ को समर्पित करने का बड़ा कदम उठाया और पद्मनाभ दास (प्रभु का सेवक) की उपाधि धारण की। उस दिन के बाद से त्रावणकोर का संबंध किसी एक व्यक्ति या शाही परिवार से नहीं, बल्कि प्रभु से हो गया। मार्तंड वर्मा के अपने भतीजे राम वर्मा के लिये अंतिम शब्द थे, "श्री पद्मनाभस्वामी को राज्य के समर्पण के संबंध में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए और आगामी सभी क्षेत्रीय अभिग्रहणों को देवस्वोम को समर्पित कर देना चाहिए ।"
मार्तंड वर्मा की बहन के बेटे, राम वर्मा, उनके उत्तराधिकारी बने और इस कारण से त्रावणकोर का शाही परिवार अन्य शाही परिवारों से अलग था।
त्रावणकोर का शाही परिवार मुरामक्थायम या मातृवंशीय प्रणाली का पालन करता था । इस प्रणाली में परिवार की महिलाओं के पास पुरुषों की तुलना में अधिक अधिकार थे और वे शाही परिवार को उत्तराधिकारी प्रदान करने के कर्तव्य को पूरा करने वाली थीं। इस प्रकार सिंहासन का उत्तराधिकारी सदा महाराजा का भतीजा (उसकी बहन का बेटा) ही होता था। साथ ही, महारानी का पद महाराजा की पत्नी नहीं बल्कि उनकी बहन को जाता था । इसका अर्थ यह था कि यदि महारानी का निधन हो जाए और वह अपने पीछे केवल बेटों को ही छोड़ जाएँ तो सिंहासन का उत्तराधिकारी कोई नहीं होता था। इसके परिणामस्वरूप ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं जहाँ परिवार के पास उचित उत्तराधिकारी प्रदान करने के लिए कोई महिला नहीं थी। ऐसे मामलों में वे प्रायः उन कन्याओं को गोद ले लेते थे जो इस कर्तव्य को पूरा कर सकती थीं । प्रारंभ से ही त्रावणकोर परिवार के बीच दत्तक ग्रहण एक सामान्य प्रक्रिया थी। दिलचस्प बात यह है कि मार्तंड वर्मा स्वयं एक राजकुमारी के बेटे थे जो परिवार में गोद ली गयी थीं । राजकुमारी को कोलातिरी परिवार से गोद लिया गया था जो की एक समान रूप से प्रतिष्ठित परिवार था।
युवा लड़कियों को शाही परिवार में गोद लिया गया था जो कि अटिंगल की रानियाँ बनने वाली थीं। अटिंगल को अक्सर रानियों का राज्य माना जाता था क्योंकि यह शाही परिवार के रानियों द्वारा शासित था। यह त्रावणकोर के महाराजा के सीधे अधिकार में मार्तण्ड वर्मा के शासनकाल तक नहीं आया था। मार्तण्ड वर्मा ने ‘अटिंगल के साथ त्रावणकोर को मिला दिया था।’ ५ वीं शताब्दी में, वेनाड परिवार में दो राजकुमारियों को गोद लिया गया (त्रावणकोर का शाही परिवार वेनाड परिवार को अपना पूर्वज मानते हैं ) और उन्हें आटिंगल के आसपास के कुछ सम्पदाओं से उत्पन्न राजस्व का उपयोग करने का अधिकार दिया गया, तब से शाही परिवार की रानियों को आटिंगल की रनी बुलाया जाने लगा।
इस तरह के गोद लेने के उदाहरण सन् १८५७ और सन् १९00 में देखे जा सकते हैं। सन् १८५७ में दो कन्याओं को शाही परिवार में गोद लिया गया था। इन कन्याओं को परिवार में वरिष्ठ रानी (महारानी लक्ष्मी बाई) और कनिष्ठ रानी (महारानी पार्वती बाई) के रूप में रखा गया था। वर्षों बाद, कनिष्ठ रानी (जिनके तीन बेटे केरल वर्मा,राम वर्मा और मार्तंड वर्मा थे ) की मृत्यु हो गई, जबकि वरिष्ठ रानी का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। इससे फिर से परिवार में ऐसी स्थिति आ गई जिसमें गोद लेना ही एकमात्र विकल्प था।
वरिष्ठ रानी, महारानी लक्ष्मी बाई पर वंश को आगे बढ़ाने और उन कन्याओं की तलाश करने का दबाव था जिन्हें गोद लिया जा सके। इसलिए, सन् १९00 में फिर से दो कन्याओं को परिवार में वरिष्ठ रानी (महारानी सेतु लक्ष्मी बाई) और कनिष्ठ रानी (महारानी सेतु पार्वती बाई) के रूप में गोद लिया गया। दुर्भाग्य से, सन् १९0१ में, मूलम तिरुनाल के शासनकाल के दौरान परिवार एक कठिन दौर से गुज़रा, जिससे लगभग एक ऐसी स्थिति बन गई जिसमें आने वाले वर्षों में कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं था जो सिंहासन पर बैठ सके।
इसकी शुरुआत अक्टूबर सन् १९00 में हुई थी, जब प्रथम राजकुमार अस्वती तिरुनाल का अचानक निधन हो गया और इसके पश्चात् ही शाही सिंहासन के उत्तराधिकारी इलया राजा चात्यम तिरुनाल का भी निधन हो गया । स्थिति तब और भी बिगड़ गई जब १५ जून सन् १९0१ में वरिष्ठ रानी, महारानी लक्ष्मी बाई का निधन हो गया। फोर्ट सेंट जॉर्ज सरकार के मुख्य सचिव ने भारत सरकार के सचिव को एक पत्र लिखा जिसमें त्रावणकोर राज्य में उत्तराधिकार की स्थिति की व्याख्या की । परिवार में लगातार मृत्यु की श्रृंखला ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी जिसमें यदि सत्तारूढ़ महाराज की भी शीघ्र ही मृत्यु हो गई तो शाही गद्दी पर बैठने के लिए कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं था। इसका पहला कारण यह था कि वरिष्ठ और कनिष्ठ रानियाँ, जिन्हें हाल ही में शाही परिवार में गोद लिया गया था, उनकी आयु क्रमशः ४ और ३ वर्ष थी जिसका अर्थ था कि वे तत्काल वर्षों में उत्तराधिकारी प्रदान नहीं कर सकती थीं। दूसरा, भले ही उनमें से एक के पुरुष उत्तराधिकारी पैदा भी हो जाए, परंतु वह तब तक महाराज नहीं बन सकता था जब तक कि वह अठारह वर्ष का ना हो जाए । ऐसी स्थिति का अर्थ था कि सन् १९३० तक कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं हो सकता था।
सौभाग्य से मुलम तिरुनाल ने ३९ वर्ष, सन् १९२४ तक शासन किया। वरिष्ठ रानी, महारानी सेतु लक्ष्मी बाई ने राज प्रतिनिधि के रूप में तब तक काम किया जब तक उत्तराधिकारी, चित्रा तिरुनाल, सन् १९३१ में अठारह वर्ष का हो जाने पर सिंहासन संभालने के योग्य हो गई।
त्रावणकोर का शाही परिवार भगवान पद्मनाभ के सबसे बड़े भक्त बने रहे। त्रावणकोर के शासक को मंदिर का संरक्षक माना जाता था जो १ ९ ७ १ में संविधान में किए गए संशोधनों के कारण बदल गया, जिसने केरल राज्य को मंदिर के संरक्षक के रूप में मान्यता दी। कई लोगों का मानना है कि शाही परिवार ने भगवान को सोना और कीमती पत्थर बड़ी मात्रा में दान दिए, जो आज मंदिर के गुप्त कलशों में निहित है। इस मंदिर को दुनिया भर में हाल ही में खोजे गए बेशुमार धन के लिए जाना जाता है। इस खज़ाने पर अधिकार यदि शाही परिवार अथवा केरल राज्य का है, आज भी विवादित है।