दिल्ली दरबार भारत के वाइसरॉय द्वारा आयोजित एक भव्य समारोह था जो महाराजा अथवा महारानी के राज्याभिषेक के अवसर पर मनाया जाता था l अतः इसे राज्याभिषेक दरबार भी कहा जाता था l ‘दरबार’ एक फ़ारसी शब्द है जिसे अंग्रेज़ों ने मुग़लों के माध्यम से अपनाया था l इसका निहित अभिप्राय भारत के लोगों के समक्ष मुग़लों के उत्तराधिकारी के रूप में दिखाई देना था l
सन् १८७६ में महारानी विक्टोरिया ने, ग्रेट ब्रिटेन एवं आयरलैंड की रानी के अतिरिक्त, ‘भारत की महारानी’ की पदवी ग्रहण की l उनकी ओर से वाइसरॉय लार्ड लिटन को संपूर्ण भारत में इसकी घोषणा करने के लिए कहा गया l इस प्रयोजन से उन्होंने १ जनवरी १८७७ को दिल्ली में एक शाही सभा का आयोजन करने का निर्णय लिया l इस ऐतिहासिक सभा में सभी राज्यपालों, उप–राज्यपालों, शासन प्रमुखों, सत्तारूढ़ सामंतों, राजाओं एवं रईसों को आमंत्रित किया गया l इस समारोह की भव्यता का पता इस बात से चलता है कि इसमें वाइसरॉय ने जितने लोगों के उपस्थित होने का अनुमान लगाया था, उससे भी अधिक लोगों ने समारोह में हिस्सा लिया l
इस सभा का आयोजन खुले मैदान में लगे मंडपों में हुआ l मंडप में आगमन पर वाइसरॉय का शाही सलाम के साथ स्वागत हुआ एवं वे बीच में स्थित वाइसरॉय सिंघासन पर बैठ गए l राज्यपाल, शासन प्रमुख, सत्तारूढ़ सामंत, भारतीय मूल के सामंत एवं अन्य उच्च अधिकारी सिंघासन की ओर मुँह करके एक अर्ध-गोलाकार रूप में बैठ गएl
सभा में उद्घोषणा पहले अंग्रेजी और फिर उर्दू में पढ़ी गई और इसके बाद १०१ तोपों की सलामी दी गई l इसके बाद वाइसरॉय ने सभा की संबोधित किया और महारानी की ओर से प्रत्येक राजा को एक स्वर्ण पदक एवं एक पताका प्रदान किया l
स्वर्ण पदक पर एक ओर महारानी की प्रतिमा उत्कीर्ण की गई थी और दूसरी ओर अंग्रेजी, उर्दू एवं हिंदी में एक अभिलेख था जिसमें ‘विक्टोरिया भारत की महारानी, १ जनवरी १८७७’ लिखा था l पताका पर एक ओर राजाओं के आयुधांक एवं दूसरी ओर एक अभिलेख था जिसमें लिखा था कि यह भारत की महारानी की ओर से एक भेंट है l
इस दरबार में दो महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए :
ब्रिटिश भारत में महामहिम रानी एवं महारानी के लिए एक सौ एक और भारत के वाइसरॉय के लिए ३१ तोपों की सलामी तय थी l भारत के अन्य प्रभावशाली राजाओं को उनके अंग्रेजों के साथ संबंधों के अनुसार २१, १९, १७, १५, एवं ९ तोपों की सलामी दी जाती थी l
दूसरा दिल्ली दरबार १९०३ में आयोजित किया गया और यह केवल एक सभा नहीं परंतु एक भव्य समारोह था जिसमें प्रत्येक व्यक्ति हिस्सा लेना चाहता था l यह दरबार एडवर्ड Vll के पदारोहण के अवसर पर हुआ था l महाराजा एडवर्ड Vll के आदेश पर ड्यूक ऑफ़ कनॉट ने इसमें हिस्सा लिया l
इस एक सप्ताह लंबे उत्सव में पोलो और फुटबॉल की प्रतियोगिताएँ भी शामिल थीं l इस के सुनियोजन एवं आयोजन के लिए एक दरबार समिति का संगठन किया गया l दरबार में भाग लेने के लिए जो अतिथिगण आए उन्हें प्रांतीय खेमों में ठहराया गया जो बिजली एवं सफाई की सुविधाओं से युक्त थे l इनमें रात को तार वाले वाद्यों के बैंड बजा करते थे जिससे यह पता चलता है कि इन खेमों में दिन भर कार्यक्रम होते थे l
बनारस के महाराजा अपने खेमे पर अपना पैतृक झंडा फहराना चाहते थे क्योंकि उनके पिता को १८७७ के दरबार में यह विशेषाधिकार दिया गया था l उन्हें वही विशेषाधिकार चाहिए था जिसे दरबार समिति ने उन्हें प्रदान कर दिया l
इस दरबार का बहुप्रतीक्षित कार्यक्रम शाही राजकीय प्रवेश था l शाही जुलूस को देखने के लिए भरी संख्या में लोग एकत्रित हो गए थे l इस दरबार में जुलूस २९ दिसंबर १९०२ को निकालना नियत किया गया l इसका आरंभ वाइसरॉय के बैंड स्टेशन पर आने पर हुआ, जहाँ बैंड ने अपना राष्ट्रीय गीत बजाया l उनका सत्तारूढ़ सामंतों एवं अन्य उच्च अधिकारीयों द्वारा स्वागत एवं अभिवादन किया गया l इसके बाद इस समारोह के मुख्य अतिथि, कनॉट के ड्यूक एवं डचस का आगमन हुआ l उनके आगमन पर बैंड ने अपना राष्ट्रीय गीत बजाया और उन्हें शाही सलामी दी गई l
वईसरॉय एवं कनॉट के ड्यूक एवं डचस स्टेशन के बाहर हाथियों पर सवार हो गए जहाँ से हाथियों का जुलूस निकला l यह जुलूस कुईंस रोड से शुरू हुआ और जामा मस्जिद के पीछे से होते हुए चांदनी चौक से फ्लेगस्टॉफ टावर पहुंचा और वईसरॉय के खेमे पर समाप्त हो गया l
दिल्ली दरबार का मुख्य कार्यक्रम १ जनवरी १९०३ का राज्याभिषेक समारोह था l इसके लिए एक अखाड़ा बनाया गया था l यह ‘ए’ से लेकर ‘वाई’ तक अलग-अलग खंडों में बंटा था l इनमें पदक्रम के आधार पर सीटें पहले से ही तय करकर दरबार के अलग-अलग अतिथियों को बाँट दी गई थीं l
दरबार समिति के लिए मुख्य चिंता का विषय महाराजाओं के साथ आईं बेगमों की बैठने की व्यवस्था करना था l इसलिए इस अखाड़े का खंड ‘वाई’ पर्दानशीं महिलाओं के लिए ही आरक्षित कर दिया गया था l कुल मिलाकर चौदह महिलाएँ थीं जिनके लिए सीटें आरक्षित की गई थीं l
१९०३ का दरबार ही एकमात्र दरबार था जिसमें निम्नलिखित दो मुख्य कार्यक्रम आयोजित हुए:
ऋण दीर्घा में वे वस्तुएँ प्रदर्शित थीं जो राजाओं एवं अन्य सामंतों द्वारा ऋण पर दी गई थीं l इन अद्भुत प्रदर्शित वस्तुओं में बरोडा के महाराजा का मोती का कालीन एवं अलवर के महाराज की कुछ सचित्र पांडुलिपियाँ शामिल थीं l शिल्पकार दीर्घा भी एक मनोरंजक अनुभाग था जहाँ शिल्पकारों के कुछ जगह दे दी गई थी और दर्शक उन्हें काम करते हुए देख सकते थे l
लॉर्ड कर्ज़न ने यह सोचा कि दीवान-ए-आम, नृत्य-कक्ष और भोजन-कक्ष के बीच तोरण पथ ढके हुए नहीं थे और इसलिए समारोह वाले दिन अतिथियों को ठंड लग सकती थी l कार्य अधीक्षक, राय बहादुर गंगा राम को इस विषय पर विचार करने के लिए कहा गया l किनारे के तोरण पथ में वायु-संचालन के लिए खिड़कियाँ थीं जिन्हें सुंदर पर्दों से ढकने का निर्णय लिया गया l नृत्य-कक्ष एवं भोजन-कक्ष के बीच के तोरण पथों पर पीले-गेरू रंग के मनोहर पर्दे डाल दिए गए l तापमान में गर्मी बनाए रखने के लिए तीन मुख्य कमरों में तापक सुविधाएँ लगाई गईं
अभिषेक समारोह का आयोजन भी लाल किले में हुआ, जिसमें कई राजाओं एवं अधिकारीयों को, ब्रिटिश भारत में योगदान देने के लिए, दिल्ली दरबार स्वर्ण एवं रजत पदक से पुरस्कृत किया गया l वस्तुतः हैदराबाद के निज़ाम को एक स्वर्ण पदक दिया गया था जो उनसे खो गया l उन्होंने उसके बदले एक दूसरे पदक दिए जाने की मांग करते हुए पत्र लिखे, और अंततः वाइसरॉय उन्हें निःशुल्क ही दूसरा पदक देने के लिए सहमत हो गए l
यह दरबार इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मध्यवर्ती खेमे में एक तार घर स्थापित किया गया था l वाइसरॉय का १ जनवरी का भाषण लंदन कार्यालय तार द्वारा भेजा गया l यह पहली बार था कि एक भाषण को तार से भेजा गया l
१९११ का दिल्ली दरबार महाराजा जॉर्ज V के पदारोहण के अवसर पर आयोजित किया गया था। यह दरबार दो कारणों से ऐतिहासिक था; पहला, केवल इसी दरबार में महाराज स्वयं उपस्थित थे और दूसरा, इसी में शाही राजधानी के कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरण की घोषणा की गई थी।
शाही राजकीय प्रवेश दरबार के मुख्य कार्यक्रमों में से एक था जिसके लिए दरबार समिति को ध्यान पूर्वक योजना बनानी पड़ी एवं आयोजन करना पड़ा l जुलूस में वाइसरॉय, महामहिम के अनुरक्षकों की टुकड़ी, सत्तारूढ़ सामंत, महामहिम के अनुरक्षकों के अधिकारीगण एवं अन्य अधिकारी शामिल थे l इस जुलूस के व्यवस्थापन के विषय पर एवं इस प्रश्न पर कि सामंत इसमें भाग ले अथवा नहीं, कई चर्चाएँ हुईं l कई प्रस्तावित योजनाओं के बाद यह निर्णय लिया गया कि सामंत शाही जुलूस के पीछे चलेंगे l सत्तारूढ़ सामंतों के जुलूस का नेतृत्व हैदराबाद के निज़ाम ने किया, जिन्हें २१ तोपों की सलामी का अधिकार था l
महाराजा एवं महारानी ७ दिसंबर १९११ को दिल्ली पहुँचे l उन्होंने बंबई से बरोडा, बॉम्बे एवं मध्य भारत रेलवे से मथुरा, आगरा, टुंडला होते हुए अपना सफ़र तय किया l वे सेंट्रल स्टेशन की बजाय सलीमगढ़ स्टेशन बैस्टियन पर उतरे l उनका स्टेशन पर भव्य आगमन हुआ जिसमें बैंड बजाए जाने से लेकर १०१ तोपों की सलामी दी गई l स्टेशन से वे सलीमगढ़ के निकट के खेमे की ओर चल दिए जहाँ सत्तारूढ़ सामंत एवं अन्य अधिकारी उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे l परिषद् के उपाध्यक्ष एवं गवर्नर जनरल के द्वारा शाही महामहिमों के लिए स्वागत भाषण दिए जाने के बाद शाही जुलूस आगे बढ़ा l
१२ दिसंबर को दरबार प्रांगण में उद्घोषणा समारोह हुआ, जहाँ पिछले दरबारों के स्थान पर दो अखाड़े बनाए गए थे l इनमें से जो बाहरी बड़ा अखाड़ा था उसका नाम स्पेकटेर माउन्ड था जो आम जनता के लिए बनाया गया था l दूसरा छोटा अखाड़ा दरबार के माननीय अतिथियों के लिए आरक्षित था l
१९११ का उद्घोषणा समारोह कई कारणों से चर्चा में रहा l पहला, गायकवाड़ के राजा ने अखाड़े में आने के बाद, अपने सितारे एवं पदकों को छोड़कर, अन्य सभी आभूषण उतारकर पीछे बैठे अपने बेटे को दे दिए l इस बात को अभद्र माना गया जिसके लिए उन्होने बाद में क्षमायाचना माँगी l दूसरा, दरबार के नियोजकों को इस बात का पहले से ही अनुमान था कि कुछ सत्तारूढ़ सामंत सम्मान समारोह में महाराजा के समक्ष सर झुकाने के पक्ष में नहीं थे । उन्हें महामहिमों के समक्ष तीन बार सर झुकाना था और फिर मुड़कर अपने स्थान की ओर जाना था l वे महाराजा से भेंट करना चाहते थे, अपितु एक समकक्ष व्यक्ति के रूप में l इसलिए, समारोह के दिन, गायकवाड़ के राजा, महाराजा एवं महारानी के समक्ष केवल एक बार आंशिक रूप से झुके, फिर मुड़े और अपने स्थान की ओर चल दिए l दिल्ली दरबार में उनके इस व्यवहार के बारे में कई समाचार पत्रों में लिखा गया क्योंकि यह बहुत असभ्य माना गया l बाद में उन्होंने इसके लिए अपने दरबार में उपस्थित अंग्रेजी रेज़िडेंट की सलाह पर क्षमा माँग ली l
१९११ के दिल्ली दरबार की इस मुख्य घटना के बाद अंग्रेज़ों को भारतीयों के मन में बसे विद्वेष का एहसास हुआ l यद्यपि एक चौथे दरबार के आयोजन के विषय में बहुत विचार किया गया परंतु कई कारणों से इसे कभी कार्यान्वित नहीं किया गया l पहला, महाराज एडवर्ड VIII ने राज गद्दी का त्याग कर दिया था और इससे बहुत अव्यवस्था फैल गई थी l दूसरा, यूरोप के कुछ हिस्सों में कुछ ऐसी गतिविधियाँ हुईं जिससे दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया और ब्रिटेन उसमें व्यस्त हो गया l इसके अतिरिक्त, इस समय तक भारत का धन इस हद तक खाली किया जा चुका था कि पिछले दरबारों के जैसा एक भव्य समारोह का विचार मात्र असंभव प्रतीत होने लगा l