पुरी में स्थित, जगन्नाथ मंदिर भारत के सबसे पूजनीय वैष्णव स्थलों में से एक है। प्राचीन हिंदू मंदिरों में से एक, जगन्नाथ मंदिर के मुख्य मंदिर का निर्माण चोड़गंग वंश के राजा अनंतवर्मा ने दसवीं सदी में करवाया था l परंतु मंदिर के अंदर स्थापित देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ इससे भी प्राचीन मानी जाती हैं और इनका संबंध सतयुग के एक महान पौराणिक शासक, राजा इंद्रयुम्म से है, जो प्रभु राम के भतीजे थे l
सन् ११७४ में राजा अनंग भीम देव उड़ीसा के सिंहासन पर बैठे l उनके द्वारा एक ब्राह्मण की हत्या हो जाने पर एक धार्मिक संकट उठ खड़ा हुआ l प्राचीन कथाओं के अनुसार उन्होंने अपने अपराध का प्रायश्चित करने के लिए प्रजा के लिए निर्माण कार्यों में बहुत अधिक धन का निवेश किया l उनके मंदिर निर्माण कार्यों में जगन्नाथ मंदिर के गौण मंदिर और चारदीवारें भी शामिल हैं l इनके निर्माण में १५ लाख सोने की मात्रा के बराबर पैसा (सन् १८८६ में ५ लाख स्टर्लिंग के बराबर) व्यय हुआ और १४ वर्षों का समय लगा (सन् ११९८ में पूरा हुआ) l उन्होंने अपने पिता द्वारा बनवाए गए मंदिर के संचालन के लिए मंदिर सेवकों के वर्ग ( छत्तिसनियोग ) को सुव्यवस्थित किया l इस मंदिर में प्रभु जगन्नाथ एवं उनके भाई-बहन की मूर्तियों की सन् १५६८ तक बिना किसी विघ्न के पूजा अर्चना होती रही l
सन् १५६८ में, गजपति शासक मुकुंद देव को पराजित करने के बाद, बंगाल के नवाब सुल्तान सुलैमान करनी का सेनापति कालपहाड़ , विजयी सेना को मंदिर लूटने के लिए मंदिर परिसर के अंदर ले गया l परंतु इससे पहले ही मंदिर की मूर्तियों को गर्भ-गृह से निकालकर चिलिका झील के पास छिपा दिया गया था l कालपहाड़ ने उन मूर्तियों को शीघ्र ही ढूंढ निकाला और उन्हें जला दिया l एक भक्त, जिसने सेना का झील तक पीछा किया था, उसने सेना के चले जाने के बाद देवी-देवताओं के ब्रह्म (प्राण) को राख में से निकाल लिया l वह उस ब्रह्म को एक मृदंग में छिपाकर कुजंग राज्य में ले आया l प्रभु की मूर्तियों के अपने निवास में न होने पर पुरी के लोगों ने शोक प्रकट किया और महाप्रसाद (प्रभु जगन्नाथ को परोसे जाने वाले ५६ व्यंजन) का वितरण भी बंद कर दिया l
खुर्दा का हिंदू राज्य इस समय रामचंद्र देव के अधीन था l वे पुरी के देवताओं के ब्रह्म को अपने राज्य में ले आए और उन्होंने देवी देवताओं को अपने लौकिक निवास में वापस पहुँचाने के लिए नोबोकोलिबोरो (एक नए तन के निर्माण का संस्कार) का आयोजन किया l इस प्रकार ब्रह्मांड के स्वामी, लगभग एक दशक के बाद, सन् १५७५ में पुरी वापस आ गए l उनके आभार की अभिव्यक्ति के रूप में, भक्तों ने रामचंद्र देव को ‘अभिनव इंद्रायुम्ना’ (इंद्रायुम्ना अवतार) नाम दिया। इसके बाद दो दशकों के भीतर ही मुग़ल साम्राज्य ने पुरी और इस मंदिर के ऊपर रामचंद्र देव के आधिपत्य को स्वीकार कर लिया l राजा मानसिंह ने उन्हें "खुर्दा के गजपति शासक एवं जगन्नाथ मंदिर के अधीक्षक" की उपाधि प्रदान की l उनके आभार की अभिव्यक्ति के रूप में, भक्तों ने रामचंद्र देव I को ‘अभिनव इंद्रायुम्ना’(इंद्रायुम्ना अवतार) नाम दिया।
बाद में मराठों और अंग्रेज़ों ने मंदिर परिसर को क्रमशः सन् १७५१ और १८०३ में अपने नियंत्रण में ले लिया l परंतु स्थानीय स्तर पर भक्तों का खुर्दा के राजाओं के द्वारा मंदिर और उसके संस्कारों का प्रबंधन करने में विश्वास बना रहा l सन् १८०९ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने आधिकारिक रूप से इस मंदिर का प्रभार राजाओं को लौटा दिया और इन राजाओं ने इस मंदिर पर अपना अधिकार तब तक नहीं छोड़ा जब तक अंग्रेज़ी सत्ता स्वयं ही भारतीय उपमहाद्वीप से समाप्त हो गई l
सन् १९७५ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने एक परियोजना के अंतर्गत नीचे की मूल रचनाओं को अनावृत्त करने के लिए चुने के प्लास्टर की कई सारी परतों को निकाल दिया। यह संरक्षण परियोजना दो दशकों तक चली । अब यह मंदिर, जिसे यूरोपीय नाविकों ने १९वीं सदी में 'व्हाइट पगोडा' का नाम दिया था, अपने प्राकृतिक रंगों सहित उन खोंडालाइट पत्थरों को सगर्व प्रदर्शित करता है जो अनंतवर्मा द्वारा इस प्रभु के घर को बनाने के लिए, १०वीं सदी में प्रयोग किए गए थे।
निर्माण के बाद से मंदिर के भीतर अनुष्ठान और प्रणालियां काफी हद तक अपरिवर्तित रही हैं। यहाँ ब्रह्मांड के स्वामी की एक बड़े अनोखे ढंग से पूजा की जाती है। उनको एवं उनके भाई-बहन को एक परिवार के सदस्य के रूप में प्यार किया जाता है और उनकी देख-भाल की जाती है। प्रतिदिन सुबह उन सबको संगीत एवं आरती के साथ उठाया जाता है । उनके सोने के कपड़े बदले जाते है और दाँत माँजे जाते हैं। उन्हें नहलाकर और कपड़े पहनाकर, सुबह के दर्शन के लिए, समय पर तैयार किया जाता है । इसके बाद शीघ्र ही उनके कपड़े बदलकर उन्हें प्रातःकालीन लघु आहार (गोपाल बल्लभ) दिया जाता है, जिसमें वे फल, दही और हरा नारियल ग्रहण करते हैं। दस बजे दूसरा नाश्ता (राज भोग) होने के बाद उन्हें सुपारी खिलाई जाती है, जो पाचन में सहायक होती है । एक बजे देवी देवता एक बड़ा दोपहर का भोजन (मध्याह्न धूप) करते हैं। सन् १९१० में इस मध्याह्न भोज में ४३५ व्यंजन शामिल थे। वस्तुतः, यह देवताओं के लिए एक उपयुक्त आहार है !
प्रत्येक भोजन के बाद आराम किया जाता है और देवताओं को भी इसकी आवश्यकता होती है। इसलिए गर्भ-गृह में खाटें डाल दी जाती हैं और भगवानों को शांतिपूर्वक सोने दिया जाता है। शाम को छः बजे उन्हें अल्पाहार (संध्या धूप) और दर्शन के लिए जगा दिया जाता है । इसके तुरंत बाद, उन्हें चंदनलागी अथवा तन पर ठंडे चंदन का लेप लगाने के लिए वस्त्र पहनाए जाते हैं और संध्याकाल के लिए तैयार किया जाता है। देवता फिर थोड़ा देर से, रात्रि १०.३० बजे, भोजन (बड़ाश्रृंगार भोग) करते हैं। इसके बाद सोने के लिए उनकी खाटें हटाकर अब अधिक आरामदेह गद्देदार पलंग डाल दिए जाते हैं। मंदिर सेवकों में से एक सेवक उन्हें वीणा की ध्वनि के साथ गीत गोविंद (कवि जयदेव ) द्वारा रचित १२वीं सदी का काव्य) का एक गीत सुनाकर सुला देता है। ब्रह्मांड के स्वामी और उनके भाई-बहन को अगली सुबह तक चैन की नींद लेने के लिए छोड़ दिया जाता है।