कोह-ए-नूर

लॉर्ड डलहौज़ी के अनुरोध पर थियोफ़िलस मेटकाफ़ द्वारा दिये गए विवरण के अनुसार ‘कोह-ए-नूर’ हीरे का खनन मासुलिपट्टनम के पास एक स्थान पर किया गया था। यह ईरान के नादिर शाह और ग़ोरी राजवंश, तैमूर राजवंश और अफ़गान दुर्रानियों सहित कई प्रसिद्ध राजाओं के स्वामित्व में रहा, जिसके बाद यह रणजीत सिंह द्वारा शुजा-उल-मुल्क से ले लिया गया था।

महाराजा रत्न के मूल्य के विषय में उत्सुक थे। जब रत्न के अंतिम मालिक की परमप्रिय पत्नी वफ़ा बेगम से पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि "यदि एक बलवान आदमी ५ पत्थर, जिसमें से ४ को मुख्य दिशाओं में और १ को लंबवत ऊपर की ओर फ़ेंके और बीच के स्थान को सोने और कीमती रत्नों से भर दिया जाए, तो भी यह इस रत्न के मूल्य के बराबर नहीं होगा।"

१८३९ में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। सिख साम्राज्य ने इस बड़ी क्षति से उबरना शुरू ही किया था कि परिस्थितियों ने इसे दो दीर्घकालीन युद्धों में धकेल दिया। द्वितीय आंग्ल सिख युद्ध में पंजाब की हार पर लाहौर की अंतिम संधि पर हस्ताक्षर किए गए। संधि के अनुच्छेद ३ में, अंग्रेज़ों ने कोह-ए-नूर को इंग्लैंड की महारानी को सौंपने की माँग की। परंतु इस संधि पर गहन दबाव वाली परिस्थितियों के तहत हस्ताक्षर किए गए थे। न केवल लाहौर के बाहर एक अतिरिक्त सैन्य दल तैनात किया गया था, बल्कि लाहौर रेज़ीड़ेंट को भी राज प्रतिनिधि परिषद के विचार-विमर्श के परिणाम की परवाह किए बिना, अंग्रेज़ी शासन लागू करने के निर्देश दिए गए थे।

पंजाब के नए युवा राजा, महाराजा दलीप सिंह ने इस हार में अपनी प्रजा का सम्मान और आत्मसंयम के साथ नेतृत्व किया।

संधि की शर्तों के तहत सिखों से हथियाए गए हीरे को महाराजा के ब्रिटिश संरक्षक डॉ लॉगिन को सौंप दिया गया। गवर्नर जनरल डलहौज़ी ने हीरा प्राप्त करने और उसे मुंबई लाने के लिए स्वयं लाहौर की यात्रा की। बहुचर्चित हीरे को स्वयं डलहौज़ी के अतिरिक्त ४ अन्य अधिकारियों की मौजूदगी में बंबई कोषागार में जमा किया गया ।

इन ४ अधिकारियों में १४वीं नेटिव इंफेंट्री के फ़्रेडरिक मैकेसन और गवर्नर जनरल के सैन्य सचिव २२वीं नेटिव इंफेंट्री के जेम्स रामसे सम्मिलित थे। उन दोनों को कोह-ए-नूर को लंदन ले जाने का काम गवर्नर जनरल ने स्वयं सौंपा था। हीरे को एक छोटे लोहे के डिब्बे के अंदर रखा गया जिसे गवर्नर जनरल की मुहर से मुहरबंद कर दिया गया। इस डिब्बे को एक लाल रंग के प्रेषण डिब्बे के अंदर रखा गया, जिसे लाल पट्टी और गवर्नर जनरल की मुहर से दोबारा मुहरबंद कर दिया गया। बाहरी मुहर, हालाँकि, एक अपूर्ण छाप थी। लाल प्रेषण डिब्बे को एक बार फिर से एक संदूक के अंदर रखा गया और इस प्रकार इसे सुरक्षित किया गया।

परंतु इसकी पुनः प्राप्ति में कुछ अप्रत्याशित दुर्घटनाएँ घटीं । डिब्बे को संदूक से निकालते समय, कोषाध्यक्ष, श्री मुसप्राट ने ढक्कन के हत्थे को खींचा जिसके कारण लाल पट्टी फट गई, मुहर टूट गयी और डिब्बा खुल गया। प्रेषण डिब्बे की आंतरिक सामग्री के बारे में मात्र डलहौज़ी, मैकेसन और रामसे ही जानते थे। गवर्नर जनरल की अनुपस्थिति को देखते हुए, दोनों सैन्य अधिकारियों ने कोषाध्यक्ष को कमरे से बहार जाने के लिए कहा ताकि वे कोह-ए-नूर की निकटता से जाँच कर सकें। संतुष्ट होने के बाद उन्होंने अपना बंडल एकत्र किया और जहाज़ की ओर चल दिए ।

समुद्र के रास्ते से हीरा ले जाने के लिए कप्तान लॉक्यर के नेतृत्व में एचएमएस मेडिया जहाज़ को चुना गया। इसने इस अनमोल रत्न को प्लायमाउथ तक पहुँचाया जहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी अध्यक्ष के सचिव श्री ओन्सलो द्वारा मैकेसन और रामसे का स्वागत किया गया। श्री ओन्सलो को दोनों लोगों के साथ शीघ्रातिशीघ्र लंदन जाना था। ठीक इसी समय कुछ विसंगतियाँ प्रकट होने लगीं। मेलविल और डलहौज़ी के लिए मैकसन और रामसे के क्रमशः दो पत्र हैं जो उनकी लंदन यात्रा के दो अलग-अलग आख्यानों का वर्णन करते हैं। इंग्लैंड में आने से पहले हीरे के कई संरक्षकों के विषय में स्पष्टता की कमी ने शाही भेंट की प्रामाणिकता के बारे में कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के बीच संदेह पैदा कर दिए । परंतु ये तब दूर हो गए जब भारत के गवर्नर जनरल और उनके सचिव ने दोनों अधिकारियों द्वारा दिए गए परिसाक्ष्यों का समर्थन कर दिया ।

२९ जुलाई १८५० को इंग्लैंड आने के बाद, २ जुलाई १८५० को तीनों व्यक्ति लंदन स्थित भारत कार्यालय में पहुँचे। ई.आई.सी. की २५०वीं वर्षगांठ पर महारानी को ३ जुलाई १८५० को हीरा भेंट किया गया ।

२०१६ में, भारत सरकार ने निश्चित निर्णय लिया कि यह हीरा एक उपहार नहीं था और महाराजा दलीप सिंह से बलपूर्वक लिया गया था। उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक प्रमाण को देखते हुए, कोह-ए-नूर पर स्वामित्व की भारतीय साख पर संदेह नहीं किया जा सकता है । हाल ही में हम कुछ यूरोपीय देशों के उदाहरण पाते हैं जो उनके पुराने उपनिवेशों के अनुरोध पर, शिल्पकृतियों के प्रत्यावर्तन के लिए सहमत हो गए हैं। दिसंबर २०१८ का एक उदाहरण है जिसमे फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने, बेनिन से ली गयी २६ कलाकृतियों को वापस करने का वादा किया है और ब्रिटिश संग्रहालय का हाल ही का निर्णय है, जिसके तहत सम्राट टेवोड्रोस द्वितीय के सिर से काटे गए बाल इथियोपिया को वापस किए जाएँगे ।