साँची स्मारक: पुनर्खोज और वापसी

साँची का स्तूप भारत के सबसे अच्छी तरह से संरक्षित और अध्ययनित बौद्ध स्थलों में से एक है। यह मध्य प्रदेश के साँची नामक शहर में एक पहाड़ी पर स्थित है। पूर्व से पश्चिम में यह सत्रह मील के क्षेत्र में और उत्तर से दक्षिण में लगभग दस मील में फैला हुआ है। इस स्थल पर कई स्तूप हैं, जिनमें से साँची के स्तूप को सबसे प्रमुख माना जाता है। इस महान स्तूप का निर्माण अशोक ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में करवाया था। यहाँ बुद्ध और उनके सबसे श्रद्धेय शिष्यों के धार्मिक अवशेष या निशानियाँ प्रतिष्ठापित हैं।

स्तूप का टीला अशोक के समय में बनाया गया। अगली तेरह शताब्दियों तक, स्तूप का विस्तार होता रहा। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में, शुंग काल के दौरान, मूल ईंट संरचना को उसके आकार से दोगुना बड़ा किया गया और टीले को बलुआ पत्थर की सिल्लियों से ढक दिया गया।

स्तूप के चारों ओर एक परिधि-पथ का निर्माण किया गया जो एक पत्थर के रेलिंग से घिरा था जिसे वेदिका भी कहा जाता है। परिक्रमा या प्रदक्षिणा बौद्ध धर्म में अनुष्ठानों और भक्ति प्रथाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके अतिरिक्त, स्तूप में एक हर्मिका (एक चौकोर संरचना) भी जोड़ी गई थी। हर्मिका को स्तूप के शीर्ष पर रखा गया है और इसमें त्रि-स्तरीय छतरी या छत्रावली है जो बौद्ध धर्म के तीन रत्नों - बुद्ध, धर्म (बुद्ध की शिक्षाएँ) और संघ (बौद्ध धर्म वर्ग) का प्रतिनिधित्व करती है।

स्तूप में सबसे विस्तृत परिवर्धन सातवाहन काल के दौरान ईसा पूर्व पहली शताब्दी से दूसरी शताब्दी ईस्वी तक हुए थे। स्तूप में चार प्रस्तर-द्वार (तोरण) चार प्रमुख दिशाओं में जोड़े गए। इन तोरणो में दो प्रस्तर स्तंभ शामिल हैं जिनके ऊपर स्तंभ शिखर (खंभे का सबसे ऊपरी हिस्सा) बने हुए हैं । स्तंभ स्वयं, शिखर कुंडलित छोरों (आयनिक स्तंभ में पाया जाने वाला घूँघर जैसा अलंकरण) वाले तीन प्रस्तरपादों (सरदल या शहतीर जो एक स्तंभ से दूसरे स्तंभ तक फैली हुई है और उनके स्तंभ शिखरों पर टिकी हुई है) को सहारा देते हैं। इन प्रस्तरपादों में बुद्ध के जीवन की घटनाएँ और जातक (बुद्ध के जीवन से जुड़ी कहानियाँ) बड़े पैमाने पर उकेरे गए हैं।

चार द्वारों के कालानुक्रमिक क्रम निम्नानुसार हैं: दक्षिणी, उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी। ये सभी प्रवेश द्वार धर्मनिष्ठ लोगों द्वारा दान किए गए थे और उनके नाम इनके स्तंभों पर अंकित थे। ये समृद्ध नक्काशीदार स्तंभ उन पर बनी उद्भृत आकृतियों के कारण महत्वपूर्ण माने जाते हैं जो पहली शताब्दी ईसा पूर्व की तीसरी तिमाही में लोगों के जीवन की एक झलक पेश करते हैं।

गुप्त काल के दौरान साँची में और परिवर्धन किए गए। इनमें एक बौद्ध मंदिर और एक सिंह स्तंभ शामिल हैं। इस महान स्तूप के कटघरे पर चौथी शताब्दी ईस्वी का चंद्रगुप्त द्वितीय का विजय शिलालेख उत्कीर्णित है। कहा जाता है कि यह स्थल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तेरहवीं शताब्दी ईस्वी तक एक संपन्न धार्मिक केंद्र रहा है। एक प्रमुख धार्मिक स्थल के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप में इसका पतन बौद्ध धर्म के पतन के साथ ही हुआ।


१८८० में अंग्रेज़ों ने साँची स्थल की पुनर्खोज की। इस पुनर्खोज का श्रेय बंगाल कैवेलरी के जनरल हेनरी टेलर को दिया जाता है। साँची में महान स्तूप की लगभग अक्षुण्ण स्थिति ने ऐसे खोजकर्ताओं और शौकिया पुरातत्वविदों की बढ़ती नस्ल के बीच दिल्चस्पी पैदा की, जो अधिकतर सेना के अधिकारी और यात्रा करने वाले पुरावशेष विशेषज्ञ थे।

स्तूप की पहली वैज्ञानिक खुदाई १८५१ में मेजर अलेक्ज़ेंडर कनिंघम की देखरेख में हुई। उन्होंने अपने सहयोगी लेफ्टिनेंट-कर्नल एफ.सी. मेसी के साथ स्थल के चित्र बनाए। बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों के अवशेष सतधारा (साँची के साढ़े छह मील पश्चिम) में स्तूप नंबर ३ के खंडहर में पाए गए, जिसका व्यास लगभग चालीस फ़ीट मापा गया और जो महान स्तूप से छोटा था।


साँची स्थल के अलावा, उन्होंने साँची से छः और बारह मील की दूरी पर स्थित सोनारी, सतधारा, भोजपुर और अंधेर के आसपास के स्तूपों में भी खुदाई की। यहाँ अनेक अनमोल खोजें की गई। अन्वेषण में प्राप्त प्राचीन वस्तुएँ कनिंघम और मेसी ने आपस में बाँट लीं और लगभग सभी पुरावशेष इंग्लैंड भेज दिए गए।

 


२३ नवंबर १८५३ को इंदौर में ब्रिटिश रेज़िडेंट, सर रॉबर्ट नॉर्थ कोली हैमिल्टन ने भारत के गवर्नर जनरल (परिषद् सहित) को भोपाल की बेगम, सिकंदर बेगम द्वारा साँची काना खेड़ी के टोप के दो प्रवेश-द्वारों (उत्तरी और पूर्वी) के नक्काशीदार पत्थरों को महारानी विक्टोरिया को भेंट करने के प्रस्ताव के बारे में सूचना भेजी।

लंदन भेजे जाने के लिए दोनों प्रवेश-द्वारों के समृद्ध रूप से नक्काशीदार पत्थरों को हटाने के लिए तैयारियाँ कर ली गई थीं। फिर भी, जटिल नक्काशियों को नुकसान पहुँचाए बिना संरचना को विघटित करने में लगने वाले खर्च और देखभाल के कारण उन्हें हटाने की योजनाओं में विलंब हुआ। बंबई में परिवहन के उचित साधनों की कमी के कारण इनके स्थानांतरण को रोक दिया गया। इन प्रवेश-द्वारों को हटाने और स्थानांतरित करने की भव्य व्यवस्था को भी एक झटका लगा क्योंकि १८५७ के विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार और भोपाल दरबार को अत्यधिक तनावपूर्ण राजनीतिक स्थिति में पहुंचा दिया था।

१८६८ में, भोपाल की बेगम ने ब्रिटिश संग्रहालय में प्रवेश द्वार भेजने के अपने प्रस्ताव को नवीनीकृत किया। हालाँकि इस बार औपनिवेशिक प्राधिकरण द्वारा बेगम की पेशकश को अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि वे यथास्थिति परिरक्षण और स्मारकों के संरक्षण की रणनीति के पालन के लिए प्रतिबद्ध थे। इसके बजाय, १८६९ में रॉयल इंजीनियर्स के लेफ्टिनेंट हेनरी एच. कोल की देखरेख में पूर्वी गेटवे का प्लास्टर कास्ट लंदन के साउथ केंसिंग्टन संग्रहालय में भेजे जाने के लिए तैयार किया गया। यह एक विस्तृत कवायद थी जिसमें रॉयल इंजीनियर्स में कर्मियों की भर्ती और जिलेटिन, पृथक ढाँचों से सांचे बनाने, और मिट्टी को दबा कर साँचे बनाने का प्रशिक्षण शामिल थे।


साँची का संरक्षण

साँची में परिरक्षण और संरक्षण के प्रयासों के लिए १८६९ में वहाँ एच.एच. कोल का आगमन एक महत्वपूर्ण अग्रदूत था। यह वही समय था जब संरचना की पुनर्स्थापना के साथ-साथ साँची स्मारकों की नकल, तस्वीरें खींचने और उनकी प्रतिकृति बनाने की एक बड़ी परियोजना कार्यान्वयित हुई। साँची के प्राचीन स्थल को संरक्षित करने के लिए १८८० के दशक से भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा संगठित प्रयास किए गए।

स्थल पर संरक्षण का यह पहला चरण ब्रिटिश अधिकारियों की ओर से एक स्वागत योग्य कदम था। हालांकि, यह प्रयास मुख्य स्तूप के आसपास के कई ऐसे छोटे स्तूपों के लिए विनाशकारी साबित हुआ, जो मुख्य स्मारक तक जाने वाली सड़क के निर्माण को समायोजित करने के लिए विस्थापित किए गए थे। पुनर्स्थापित दक्षिणी प्रवेश द्वार के सरदलों को आगे से पीछे की ओर रखा गया था। इन संरचनाओं को और नुकसान नहीं पहुँचाने के डर से इन ग़लतियों को कभी भी प्रतिवर्तित नहीं किया गया।

१९०४ में भोपाल में राज्य अभियंता श्री कुक की देखरेख में इस तरह के सदाशयी लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण संरक्षण का दूसरा चरण शुरू किया गया। पुनरुद्धार कार्य के दौरान महान साँची स्तूप के चारों ओर मुख्य कटघरे के खंभों और मुंडेर के पत्थरों को तोड़कर नष्ट कर दिया गया या उन्हें दानदाताओं के नाम के शिलालेख सहित हटा दिया गया। संरचनाओं को पहुंची इस तरह की अपूरणीय क्षति के कारण पुरातात्विक और प्रशासनिक हलकों में तीव्र रोष पैदा हुआ। भारत के वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने सुविदित रूप से इन उपायों को "अपवित्रता के अभिषेक" के रूप में वर्णित किया।

साँची स्तूपों का संरक्षण और देखभाल ब्रिटिश सरकार के लिए एक विशेष चिंता का विषय बन गया था। लॉर्ड कर्ज़न ने जब से १८९९ में उस जगह का दौरा किया था, तभी से वे विशेष रूप से साँची के संरक्षण में लगे हुए थे। नवंबर १९०५ में भोपाल से गुज़रते समय उन्होंने यह सुझाव दिया कि स्तूपों को भारत सरकार को सौंप दिया जाए। हालाँकि, भोपाल की बेगम सुल्तान जहाँ ने पुरातात्विक अभिरुचि के स्मारक के रूप में बौद्ध व्यवस्था के संरक्षण के लिए भोपाल राज्य की मंशा बताते हुए इस प्रस्ताव से इनकार कर दिया। उन्होंने साँची के संरक्षण और पुनरुद्धार की व्यवस्था की।

भोपाल राज्य ने १९१२ और १९१९ के बीच भारत में पुरातत्व के महानिदेशक जॉन मार्शल द्वारा शुरू की गई साँची स्थल की पुनरुद्धार परियोजना के अगले चरण में धन निवेशित किया। उन्होंने यह समय उन भयानक नुकसानों को मिटाने में बिताया जिनके कारण उस स्थान पर अधिकांश स्तूप गिर कर बस मलबा बन कर रह गये थे। पहाड़ी के तल पर मार्शल द्वारा एक छोटा सा संग्रहालय स्थापित किया गया । यह स्थल के चारों ओर बिखरी हुई प्राचीन वस्तुओं की देखभाल और संरक्षण के लिए समर्पित किया गया। भोपाल दरबार ने इस मामले में पूर्ण समर्थन दिया क्योंकि इस संग्रहालय के निर्माण को भोपाल की बेगम ने को पूरी तरह से वित्तपोषित किया ।


साँची मंजूषाओं की वापसी

१९२० में भोपाल के राजनैतिक अभिकर्ता, लेफ्टिनेंट कर्नल सी.ई. लुआर्ड को भोपाल के दरबार के वारिस नवाबज़ादा हमीदुल्ला खान का एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने कुछ अवशेष मंजूषाओं और अन्य वस्तुओं के बारे में बताया, जिन्हें अलेक्ज़ेंडर कनिंघम द्वारा साँची से ब्रिटिश संग्रहालय में ले जाया गया था। उन्होंने इस तथ्य के मद्देनज़र उनकी वापसी के लिए अनुरोध किया कि चूंकि अब कि साँची का अपना संग्रहालय है, तो इन मूल्यवान वस्तुओं पर उनके दावे की प्रधानता होनी चाहिये। पत्र के साथ उन्होंने जॉन मार्शल द्वारा १९१९ में तैयार की गई साँची की सत्रह वस्तुओं की एक सूची संलग्न की थी जो वर्तमान में ब्रिटिश संग्रहालय में रखी गई है।

जब साँची पुरावशेषों के पुनरुद्धार का यह मामला लुआर्ड द्वारा मार्शल को भेजा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि ब्रिटिश संग्रहालय साँची की मूल पुरावशेषों को वापस करने के लिए एक क्षण के लिए भी विचार नहीं करेगा, और उन्होंने राजनैतिक अभिकर्ता को उक्त बात छोड़ देने का आग्रह करते हुये चेतावनी दी कि, "अगर ऐसी मिसाल कायम की जाती है तो ब्रिटिश संग्रहालय जल्द ही अपने आधे खज़ाने से हाथ धो बैठेगा, जिसकी ग्रीस, मिस्र और इटली और दूसरे दर्जनों देश वापस माँग करने लगेंगे।”


यह मामला तब तक थमा रहा जब तक कि १९४० में साँची के पुरावशेषों की वापसी की माँग नहीं की गई। प्रेस में यह बताया गया कि सारिपुत्र और मोगलाना (बुद्ध के प्रमुख शिष्यों) के अवशेषों को विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय द्वारा महाबोधि सोसाइटी को नई दिल्ली में बौद्ध मंदिर में स्थापित करने के लिये सौंप दिया जाएगा। १९३८ में महाबोधि सोसाइटी ऑफ बॉम्बे ने भारत सरकार से विक्टोरिया और अल्बर्ट म्यूज़ियम, लंदन से सारिपुत्र और मोगलगाना के अवशेष वापस लाने के लिए अनुरोध किया । १९३९ में संग्रहालय ने भारत के राज्य सचिव के हस्तक्षेप के माध्यम से महाबोधि सोसायटी को अवशेष लौटाने का फैसला किया। हालाँकि, द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ जाने के कारण अवशेषों का स्थानांतरण स्थगित करना पड़ा।


युद्ध का हस्तक्षेप भोपाल दरबार के लिए समयानुकूल साबित हुआ। पुरावशेषों के लिए भोपाल दरबार की मांग को बहाल करने वाला एक पत्र भोपाल में राजनैतिक अभिकर्ता एल.जी. वालिस को भेजा गया, जिसमें यह कहा गया था कि भोपाल सरकार अवशेषों की मालिक थी और उन्हें साँची संग्रहालय में बहाल किया जाना था जो उनके लिए सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता था। उन्होंने साँची के अवशेषों की वापसी के लिए अथक प्रयास किया। वे बौद्ध तीर्थयात्रियों की धार्मिक आवश्यकताओं के अनुसार अवशेषों के लिए उपयुक्त व्यवस्था करने के लिए तैयार थे। भोपाल सरकार से अनुरोध किया गया कि वह भारत सरकार द्वारा साँची में अवशेषों को प्रतिष्ठापित करने के लिए महाबोधि सोसाइटी को राज़ी करे।

तदनुसार, १९४६ में भोपाल सरकार और महाबोधि सोसायटी के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि अवशेषों को अंततः साँची में एक नव-निर्मित विहार में प्रतिष्ठापित किया जाएगा। अंत में, ३० नवंबर १९५२ को साँची में नई चेतियागिरि विहार में उनकी मूल मंजूषाओं में अवशेषों को प्रतिष्ठापित किया गया। एक भव्य और उपयुक्त समारोह में जिसमें बर्मा, कंबोडिया और श्रीलंका के विश्व और बौद्ध नेताओं और स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाग लिया, राष्ट्रीय स्मारक के रूप में साँची के आधुनिक जीवन का उद्घाटन किया गया।